थक इस कदर गए हैं पाँव, कि अब हम चल न पाएंगे

किये थे जो भी वादे खुद से, फुर्सत में निभाएंगे

ज़िन्दगी ने राह तो दी मुक्कमल, ऐ मेरे दाता

चंद लम्हे जो मिल जाएँ, तो जज़्बा ढूंढ लाएंगे

 

टूट जाती है रूह, इस दिन की भागा-दौड़ में ऎसे

चले आते हैं सर लटका के हम भी रोज़ मेले से

बटोरते हैं ज़ेहन के लाख टुकड़े, रात बिस्तर पर

रुक जाए दुनिया एक पल जो, संभल जाएंगे

 

सभी में आग है पूरी, जिगर में जश्न है भरसक

नेस्तोनाबूद कर दे जो सबको, है ऐसा जोश सीने में

जिसे देखो वो लिए आखों में ऐसी आग फिरता है

क्या कभी हम भी ऐसे बेतहाशा दहक पाएंगे?

 

हाँ माना के पीछे हैं, ज़रा रफ़्तार धीमी है

इरादा है की आगे राह में बस गलतियां न हों

फिसल जाना इस मकाम पे अब गवारा न होगा

वो कहते हैं की गर चूके तो ताउम्र पछतायेंगे

 

सजा रहता है ये मेला, चहकती भीड़ रहती है

निकलते हैं हम जो रस्ते से तो बुढ़िया रोज़ कहती है

की भैया रोज़ आते हो, औ दो चक्कर लगाते हो

दिवाली की ये वेला है कमसकम आज कुछ ले लो ॥

थक चुका हूँ इस कदर अरे मैं इस दिवाली से

ज़िन्दगी के तमाशो से, ये फीकी बहरहाली से

अगर फिर भी बोनी न हुई हो आज गर माँ तो

इक कागज़ के लिफ़ाफ़े में पाँव भर मौत ही दे दो ॥


Varun is a member of LSD and is in one of his poetic moods right now. Also, he is another WordPress newbie.

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